बेटी ब्वारी पहाड़ू की बेटी ब्वारी
बेटी ब्वारी पहाड़ू की बेटी ब्वारी
भावार्थ : हमारे पहाड़ की बहू-बेटियां एक ओर तो प्रीत की डोर की तरह बहुत नाजुक हैं लेकिन दूसरी ओर वह पर्वत के समान कठोर भी हैं।
सुबह होती ही वह अपना सारा खाना-पीना भूल कर काम-धंधों में जुट जाती हैं, इनके लिए तो बस कर्म ही पूजा है, ऐसा लगता है कि हमारे जो खेत-खलिहान हरे भरे हुए हैं वो सिर्फ इनके पसीने की सिंचाई से ही हुए हैं। ऐसी हैं हमारे पहाड़ की बहू-बेटियाँ।
बारिश के मौसम में ये वनों में भीगती हैं तो इनकी काया खेतों में काम करते हुए तेज धूप में सूखती है, सोलह श्रृंगार क्या होते है ये तो जैसे इन्हें पता ही नही है, देखो तो कैसे इनके होंठ और गाल फटे हुए हैं, ये लगातार काम के बोझ के नीचे दबी हुई रहती हैं। ऐसी हैं हमारे पहाड़ की बहू-बेटियाँ।
दुख के आंसुओं से इनकी आंखें लबालब भरी हुईं हैं, लेकिन मन की बात तो मन में ही दबी पड़ी है, शरीर तो इनका घर पर है लेकिन नजर परदेश पर टिकी है। पति के इन्तजार में इनकी सांसें टंगी हुई हैं लेकिन दिल में आस लगी हुई है, सच में इनकी तो महिमा ही न्यारी है। ऐसी हैं हमारे पहाड़ की बहू-बेटियाँ।
दुख-बीमारी में भी इनका काम कभी टलता नहीं है, कभे रुकता नहीं, घर-जंगल और खेतों की जिम्मेदारी इन अकेले कन्धों पर है, हम ने तो कभी इन्हें न सोते हुए देखा और न ही बिस्तर से उठते हुए (सुबह सबसे पहले जगना, रात को अन्त में सोना), ऐसा लगता है कि सुबह उठकर सूर्य देव को भी जैसे यही जगाती हैं, अरे इनसे तो विधाता भी हार जायेगा। ऐसी हैं हमारे पहाड़ की बहू-बेटियाँ।
बेटी ब्वारी पहाड़ू की बेटी ब्वारी
प्रीत की कुंगली डोर सी छिन ये
प्रीत की कुंगली डोर सी छिन ये, पर्वत जन कठोर भी छिन ये
हमारा पहाड़ों की नारी.. बेटी ब्वारी,
बेटी ब्वारी पहाड़ू की बेटी ब्वारी, बेटी ब्वारी पहाड़ू की बेटी ब्वारी
बिनसिरि बटि धाण्यू मां लगीण, स्यैणी खाणी सब हरचिन
बिनसिरि बटि धाण्यू मां लगीण, स्यैणी खाणी सब हरचिन
करम ही धरम काम ही पूजा, यूं कै पसिन्यांन हरि-भरिन
पुंगड़ी पटली हमारी – बेटी ब्वारी
बेटी ब्वारी पहाड़ू की बेटी ब्वारी, बेटी ब्वारी पहाड़ू की बेटी ब्वारी
बरखा बत्वाण्युंन बन मां रुझि छिन, पुंगड़्यूँ मां घामन गाती सुखीं छिन
बरखा बत्वाण्युंन बन मां रुझि छिन, पुंगड़्यूँ मां घामन गाती सुखीं छिन
सौ सिंगार क्या हुन्द नि जाणी
फिफ्ना फट्यां छिन, गलोड़ी तिड़ी छिन
काम का बोझ की मारी- बेटी ब्वारी
बेटी ब्वारी पहाड़ू की बेटी ब्वारी, बेटी ब्वारी पहाड़ू की बेटी ब्वारी
खैरी का आँसुल आंखी भोरीं चा, मन की स्यांणि गाणी मारीं चा
खैरी का आँसुल आंखी भोरीं चा, मन की स्यांणि गाणी मारीं चा
सरैल घर मां टक परदेश, सांस चनि छिन आस लगीं चा
यूँ की महिमा न्यारी – बेटी ब्वारी
बेटी ब्वारी पहाड़ू की बेटी ब्वारी, बेटी ब्वारी पहाड़ू की बेटी ब्वारी
दुःख बीमारी मां भी काम नि टाली, घर बण रुसड़ु याखुली समाली
दुःख बीमारी मां भी काम नि टाली, घर बण रुसड़ु याखुली समाली
स्यैंद नि पै कभी बिजदा नि देखि, रतब्याणुं सूरिज भी यूनी बिजाली
यूं से बिधाता भी हारी – बेटी ब्वारी
बेटी ब्वारी पहाड़ू की बेटी ब्वारी, बेटी ब्वारी पहाड़ू की बेटी ब्वारी
प्रीत की कुंगली डोर सी छिन ये
पर्वत जन कठोर भी छिन ये
हमारा पहाड़ों की नारी.. बेटी ब्वारी
बेटी ब्वारी पहाड़ू की बेटी ब्वारी, बेटी ब्वारी पहाड़ू की बेटी ब्वारी
भावार्थ : हमारे पहाड़ की बहू-बेटियां एक ओर तो प्रीत की डोर की तरह बहुत नाजुक हैं लेकिन दूसरी ओर वह पर्वत के समान कठोर भी हैं।
सुबह होती ही वह अपना सारा खाना-पीना भूल कर काम-धंधों में जुट जाती हैं, इनके लिए तो बस कर्म ही पूजा है, ऐसा लगता है कि हमारे जो खेत-खलिहान हरे भरे हुए हैं वो सिर्फ इनके पसीने की सिंचाई से ही हुए हैं। ऐसी हैं हमारे पहाड़ की बहू-बेटियाँ।
बारिश के मौसम में ये वनों में भीगती हैं तो इनकी काया खेतों में काम करते हुए तेज धूप में सूखती है, सोलह श्रृंगार क्या होते है ये तो जैसे इन्हें पता ही नही है, देखो तो कैसे इनके होंठ और गाल फटे हुए हैं, ये लगातार काम के बोझ के नीचे दबी हुई रहती हैं। ऐसी हैं हमारे पहाड़ की बहू-बेटियाँ।
दुख के आंसुओं से इनकी आंखें लबालब भरी हुईं हैं, लेकिन मन की बात तो मन में ही दबी पड़ी है, शरीर तो इनका घर पर है लेकिन नजर परदेश पर टिकी है। पति के इन्तजार में इनकी सांसें टंगी हुई हैं लेकिन दिल में आस लगी हुई है, सच में इनकी तो महिमा ही न्यारी है। ऐसी हैं हमारे पहाड़ की बहू-बेटियाँ।
दुख-बीमारी में भी इनका काम कभी टलता नहीं है, कभे रुकता नहीं, घर-जंगल और खेतों की जिम्मेदारी इन अकेले कन्धों पर है, हम ने तो कभी इन्हें न सोते हुए देखा और न ही बिस्तर से उठते हुए (सुबह सबसे पहले जगना, रात को अन्त में सोना), ऐसा लगता है कि सुबह उठकर सूर्य देव को भी जैसे यही जगाती हैं, अरे इनसे तो विधाता भी हार जायेगा। ऐसी हैं हमारे पहाड़ की बहू-बेटियाँ।
बेटी ब्वारी पहाड़ू की बेटी ब्वारी
प्रीत की कुंगली डोर सी छिन ये
प्रीत की कुंगली डोर सी छिन ये, पर्वत जन कठोर भी छिन ये
हमारा पहाड़ों की नारी.. बेटी ब्वारी,
बेटी ब्वारी पहाड़ू की बेटी ब्वारी, बेटी ब्वारी पहाड़ू की बेटी ब्वारी
बिनसिरि बटि धाण्यू मां लगीण, स्यैणी खाणी सब हरचिन
बिनसिरि बटि धाण्यू मां लगीण, स्यैणी खाणी सब हरचिन
करम ही धरम काम ही पूजा, यूं कै पसिन्यांन हरि-भरिन
पुंगड़ी पटली हमारी – बेटी ब्वारी
बेटी ब्वारी पहाड़ू की बेटी ब्वारी, बेटी ब्वारी पहाड़ू की बेटी ब्वारी
बरखा बत्वाण्युंन बन मां रुझि छिन, पुंगड़्यूँ मां घामन गाती सुखीं छिन
बरखा बत्वाण्युंन बन मां रुझि छिन, पुंगड़्यूँ मां घामन गाती सुखीं छिन
सौ सिंगार क्या हुन्द नि जाणी
फिफ्ना फट्यां छिन, गलोड़ी तिड़ी छिन
काम का बोझ की मारी- बेटी ब्वारी
बेटी ब्वारी पहाड़ू की बेटी ब्वारी, बेटी ब्वारी पहाड़ू की बेटी ब्वारी
खैरी का आँसुल आंखी भोरीं चा, मन की स्यांणि गाणी मारीं चा
खैरी का आँसुल आंखी भोरीं चा, मन की स्यांणि गाणी मारीं चा
सरैल घर मां टक परदेश, सांस चनि छिन आस लगीं चा
यूँ की महिमा न्यारी – बेटी ब्वारी
बेटी ब्वारी पहाड़ू की बेटी ब्वारी, बेटी ब्वारी पहाड़ू की बेटी ब्वारी
दुःख बीमारी मां भी काम नि टाली, घर बण रुसड़ु याखुली समाली
दुःख बीमारी मां भी काम नि टाली, घर बण रुसड़ु याखुली समाली
स्यैंद नि पै कभी बिजदा नि देखि, रतब्याणुं सूरिज भी यूनी बिजाली
यूं से बिधाता भी हारी – बेटी ब्वारी
बेटी ब्वारी पहाड़ू की बेटी ब्वारी, बेटी ब्वारी पहाड़ू की बेटी ब्वारी
प्रीत की कुंगली डोर सी छिन ये
पर्वत जन कठोर भी छिन ये
हमारा पहाड़ों की नारी.. बेटी ब्वारी
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