इतिहास परीक्षा थी उस दिन,
इतिहास परीक्षा थी उस दिन,
चिंता से हृदय धड़कता था,
जब से जागा था सुबह, तभी से,
बायां नयन फड़कता था...
जो उत्तर मैंने याद किए,
उनमें से आधे याद हुए,
वे भी स्कूल पहुंचने तक,
यादों में ही बरबाद हुए...
जो सीट दिखाई दी खाली,
उस पर ही डटकर जा बैठा,
था एक निरीक्षक कमरे में,
वह आया, झल्लाया, ऐंठा...
रे, रे, तेरा है ध्यान किधर,
क्यों करके आया देरी है,
तू यहां कहां पर आ बैठा,
उठ जा, यह कुर्सी मेरी है...
मैं उचका एक उचक्के-सा,
मुझमें सीटों में मैच हुआ,
चकरा-टकराकर कहीं एक,
कुर्सी के द्बारा कैच हुआ...
पर्चे पर मेरी नज़र पड़ी,
तो सारा बदन पसीना था,
फिर भी पर्चे से डरा नहीं जो,
यह मेरा ही सीना था...
कॉपी के बरगद पर मैंने,
बस, कलम-कुल्हाड़ा दे मारा,
घंटे-भर के भीतर कर डाला,
प्रश्नों का वारा-न्यारा...
गौतम जो बुद्ध हुए जाकर,
वह गांधी जी के चेले थे,
दोनों बचपन में नेहरू के संग,
आंख-मिचौनी खेले थे...
होटल का मालिक था अशोक,
जो ताज महल में रहता था,
ओ अंग्रेजों, भारत छोड़ो,
वह लाल किले से कहता था...
झांसा दे जाती थी सबको,
ऐसी थी झांसी की रानी,
अक्सर अशोक के होटल में,
खाया करती थी बिरयानी...
ऐसे ही चुन-चुनकर मैंने,
प्रश्नों के पापड़ बेल दिए,
उत्तर के ये ऊंचे पहाड़,
टीचर की ओर धकेल दिए...
टीचर जी इस ऊंचाई तक,
बेचारे कैसे चढ़ पाते,
लाचार पुराने चश्मे से,
इतिहास नया क्या पढ़ पाते...
उनके बस के बाहर,
मेरे इतिहासों का भूगोल हुआ,
ऐसे में फिर क्या होना था,
मेरा नम्बर गोल हुआ...
चिंता से हृदय धड़कता था,
जब से जागा था सुबह, तभी से,
बायां नयन फड़कता था...
जो उत्तर मैंने याद किए,
उनमें से आधे याद हुए,
वे भी स्कूल पहुंचने तक,
यादों में ही बरबाद हुए...
जो सीट दिखाई दी खाली,
उस पर ही डटकर जा बैठा,
था एक निरीक्षक कमरे में,
वह आया, झल्लाया, ऐंठा...
रे, रे, तेरा है ध्यान किधर,
क्यों करके आया देरी है,
तू यहां कहां पर आ बैठा,
उठ जा, यह कुर्सी मेरी है...
मैं उचका एक उचक्के-सा,
मुझमें सीटों में मैच हुआ,
चकरा-टकराकर कहीं एक,
कुर्सी के द्बारा कैच हुआ...
पर्चे पर मेरी नज़र पड़ी,
तो सारा बदन पसीना था,
फिर भी पर्चे से डरा नहीं जो,
यह मेरा ही सीना था...
कॉपी के बरगद पर मैंने,
बस, कलम-कुल्हाड़ा दे मारा,
घंटे-भर के भीतर कर डाला,
प्रश्नों का वारा-न्यारा...
गौतम जो बुद्ध हुए जाकर,
वह गांधी जी के चेले थे,
दोनों बचपन में नेहरू के संग,
आंख-मिचौनी खेले थे...
होटल का मालिक था अशोक,
जो ताज महल में रहता था,
ओ अंग्रेजों, भारत छोड़ो,
वह लाल किले से कहता था...
झांसा दे जाती थी सबको,
ऐसी थी झांसी की रानी,
अक्सर अशोक के होटल में,
खाया करती थी बिरयानी...
ऐसे ही चुन-चुनकर मैंने,
प्रश्नों के पापड़ बेल दिए,
उत्तर के ये ऊंचे पहाड़,
टीचर की ओर धकेल दिए...
टीचर जी इस ऊंचाई तक,
बेचारे कैसे चढ़ पाते,
लाचार पुराने चश्मे से,
इतिहास नया क्या पढ़ पाते...
उनके बस के बाहर,
मेरे इतिहासों का भूगोल हुआ,
ऐसे में फिर क्या होना था,
मेरा नम्बर गोल हुआ...
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